बुधवार, 18 दिसंबर 2019

सीएए : किसी पर पाबंदी नहीं, केवल सताए गए अल्पसंख्यकों को राहत


नागरिकता संशोधन कानून का भारतीय हिंदू या मुसलमानों से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान से आने वाले मुस्लिमों को नागरिता देने पर पाबंदी भी नहीं लगायी गई है। नागरिकता संशोधन कानून के तहत केवल इन देशों में धर्म के नाम पर उत्पीड़न का शिकार हुए हिंदू, सिख, पारसी, जैन और क्रश्चियनों को नागरिकता देने के नियमों में कुछ ढ़ील देने का फैसला किया गया है। नियमों के मुताबिक कोई भी विदेशी शख्स (मुस्लिम भी) भारत में 11 साल रह ले तो वो भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है। गृहमंत्रालय आवेदन के गुण दोष को देखते हुए नागरिकता देने का फैसला करेगा। नागरिकता संशोधन कानून में केवल इतना बदलाव किया गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आले वाले हिंदू, सिख, जैन, पारसी और इसाई केवल पांच साल भी भारत में बिता ले तो उन्हें नागरिकता दी जा सकती है।
इसके साथ ही ऐसा भी नहीं है कि विदेशों से आने वाले हिंदू, मुस्लिम, सिख, जैन, पारसी या क्रिश्चियन आते रहेंगे और भारत उन्हें नागरिकता देता रहेगा। इस कानून के तहत केवल उन्हें ही नागरिकता दिए जाने पर विचार किया जाएगा, जो दिसंबर 2014 तक भारत में आ चुके थे और यहीं रह रहे हैं। ऐसे मुस्लिम अगर इस तारीख तक 11 साल पूरा कर चुके हैं तो वो भी नागरिकता के लिए हिंदू, सिख, पारसी, जैन और क्रिश्चियनों की तरह ही आवेदन कर सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि इसमें किसी भी तरह की आपत्ति या विवाद होना चाहिए क्योंकि बेहतर जीवन की तलाश में भारत आने वाले गरीब मुसलमानों के बजाय जीवन और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए भारत की जमीन पर आने वाले अल्पसंख्यकों को कुछ रियायत तो मिलनी ही चाहिए। यह रियायत देना न तो संविधान की मूल भावना के उलट है और न ही स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की मंशा के खिलाफ। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारत पाकिस्तान बंटवारे के बाद 26 सितंबर 1947 में कहा था कि ‘पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू और सिख हर नजरिए से भारत आ सकते हैं अगर वो वहां निवास नहीं करना चाहते हैं। उस स्थिति में उन्हें नौकरी देना और उनके जीवन को सामान्य बनाना, भारत सरकार का पहला कर्तव्य है’।

पांच और 11 साल का भेद क्यों?
संविधान के मुताबिक भारत की जमीन पर मौजूद सभी व्यक्तियों पर लगने वाला कानून समान होगा। ऐसे में विदेशी मुस्लिमों को 11 साल रहने के बाद नागरिकता देने और मुस्लिम देशों से भागकर आने वाले अल्पसंख्यकों को महज पांच साल में रहने पर ही नागरिकता दिए जाने के फैसले पर सवाल उठ रहा है। जानकारों के मुताबिक व्यक्ति के इतर नागरिकों को सुविधाएं और अवसर की समानता का अधिकार देने के मामले में भी ऐसे कानून बनाने पड़ते हैं जिन्हें लेकर समानता के अधिकार पर सवाल खड़े हो सकते हैं। आरक्षण का कानून भी ऐसा ही एक कानून है। जिस तरह कमजोर तबकों को मुख्य धारा में लाने के लिए उन्हें आरक्षण समेत विशेष रियायतें दी जानी जरूरी हैं, वैसे ही बेहतर जीवन शैली के लिए भारत आने वाले मुसलमानों के बजाय पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में अपना सबकुछ छोड़कर जीवन, परिवार और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए भारत आने वाले अल्पसंख्यकों को विशेष रियायत और तरजीह दिया जाना जरूरी है।


रोहिंग्या, अहमदिया और शियों को राहत क्यों नहीं?
अगर भारत सरकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए नागरिकता संशोधन बिल में रियायत का दावा कर रही है तो रोहिंग्या, अहमदिया और शिया समुदाय को इससे बाहर क्यों रखा गया है? एक एक वाजिब सवाल है लेकिन भारत सरकार का दावा है कि रोहिंग्या मुस्लिम वर्मा के बजाय बांग्लादेश की तरफ से भारत आते हैं। बांग्लादेश पहले उन्हें अपने यहां शरण देता है और फिर चुपके से भारत में घुसपैठ करा देता है। ऐसे में उन्हें शरणार्थी नहीं माना जा सकता। वहीं पाकिस्तान ने बकायदा शासनादेश जारी करते हुए अहमदिया/कादियानी को मुस्लिम मानने से इंकार कर दिया है। यही नहीं पाकिस्तान में वोहरा समुदाय पर भी बड़े अत्याचार किए जाते हैं। शियों की स्थिति भी चिंताजनक है। ऐसे में भारत सरकार को इस समुदाय के लोगों को भी अल्पसंख्यक मानते हुए नागरिकता के नियमों में ढील का फायदा देना चाहिए। हालांकि भारत सरकार अहमदिया/कादियानी को मुसलमान ही मानती है। वहीं, पाकिस्तान में सताए जाने वाले शिया समुदाय के लोग भारत के बजाय ईरान या यूरोप जाने को तरजीह देते हैं। हालांकि इस बीच शिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने पाकिस्तान के शियों को भी राहत देने की मांग शुरू कर दी है।

अल्पसंख्यकों को सुरक्षा नहीं दे सका पाकिस्तान  :
अंग्रेजी शासन से आजादी और भारत पाकिस्तान बंटवारे के बाद सबसे बड़ा संकट दोनों देशों के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके आत्मसम्मान की रक्षा का था। इसके लिए 1951 में नेहरू लियाकत समझौता हुआ। दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए हर संभव कदम उठाने का फैसला किया गया। भारतयी प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे पूरी तरह से अमल में लाते हुए भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के बजाय पंथ निरपेक्षता का रास्ता चुना, वहीं पाकिस्तान में ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि लियाकत को ही गोली मार दी गई। इसके बाद वहां धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना होती रही। बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक मार दिए गए, कंवर्ट कर दिए गए या भगा दिए गए। इन तमाम देशों में अल्पसंख्यकों की आबादी के सरकारी आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं। यह साफ है कि देश का बंटवारा होने के बाद पाकिस्तान ने नेहरू लियाकत समझौते का पालन नहीं किया, ऐसे में वहां के अल्पसंख्यक कहां जाएंगे? लिहाजा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उस आश्वासन के मुताबिक जो उन्होंने पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू और सिखों को 1947 में दिया था, वर्तमान भारत सरकार ऐसे अल्पसंख्यकों को शरण देने के नियमों में ढील देता है तो कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।

समस्या की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
भारत में घुसपैठ और शरणार्थियों की समस्या देश के बंटवारे से जुड़ी हुई है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक ही जमीन के तीन टुकड़े हैं। 15 अगस्त 1947 में भारत पाकिस्तान बंटवारे के वक्त करीब 72 लाख मुसलमान भारत से पाकिस्तान गए और करीब 73 लाख हिंदू, सिख, जैन, पारसी और क्रश्चियन पाकिस्तान से भारत आए। सीमाओं पर रहने वाले दोनों तरफ के नागरिकों की बोली, रहन सहन और परिवेश लगभग एक जैसे हैं। ऐसे में महज उन्हें देखकर उनके विदेशी होने की पहचान करना मुश्किल है। इसका फायदा उठाते हुए 1947 के बाद भी कभी बेहतर रोजगार तो कभी धार्मिक सुरक्षा के लिए आजादी के बाद से लगातार घुसपैठ होती रही है।

असम की चिंता, सुप्रीम कोर्ट और एनआसी :
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर सबसे बड़ा विरोध असम में हुआ। इसकी बड़ी वजह यह है कि वहां जमे हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता दे दी गई तो, बाहरियों की आबादी मूल असमियों से ज्यादा हो जाएगी। ऐसा होना सीधे तौर पर उनकी संस्कृति, रहन सहन, भाषा और संसाधनों का अतिक्रमण होगा। बांग्लादेश की तरफ से आ रहे घुसपैठियों और शरणार्थियों की बढ़ती संख्या को लेकर असम के नागरिक लंबे समय से आंदोलन करते रहे हैं। बहुत दिनों तक आंदोलन के बाद वर्ष 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ असमा एकॉर्ड साइन हुआ। इसमें तय हुआ कि जो लोग वर्ष 1951 से लेकर 1961 के बीच बांग्लादेश से भारत आ गए हैं, उन्हें नागरिकता दे दी जाए। इसके साथ ही जो लोग 1961 के बाद मार्च 1971 तक भारत आए हैं, उन्हें नागरिकता तो दे दी जाए लेकिन उन्हें मतदान का अधिकार नहीं होगा। मार्च 71 के बाद जो भी आया है उसे वापस जाना होगा। इस एकॉर्ड के मुताबिक मार्च 1971 के बाद आए हुए हर शरणार्थी या घुसपैठिए को विदेशी मानते हुए कार्यवाही का फैसला किया गया। अब यह तय कैसे होगा कि कौन किस तारीख को आया? इसके लिए एक रजिस्टर बनाने का फैसला हुआ, जिसमें इन तमाम मानकों के साथ वैध नागरिकों का ब्योरा दर्ज किया जाना था। इसे ही राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) कहा गया। उसमें कुछ तय मानक हैं, जिनके आधार पर नाम दर्ज किया जाना था। समझौता होने के बाद भी 1985 के बाद से सरकारें इसे टालती रहीं। मजबूर होकर सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2013 में हस्तक्षेप करते हुए इस मामले में केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगायी और अपनी देखरेख में एनआसी का काम शुरू करा दिया। इसमें पहले चरण में 40 लाख विदेशियों की पहचान की गई लेकिन आपत्तियों की सुनवाई के बाद यह आंकड़ा केवल 19 लाख बचा। इसमें से 13 लाख हिंदू और छह लाख मुसलमान हैं। नागरिकता संशोधन कानून के तहत इनमें से पांच साल पूरा कर चुके हिंदुओं और 11 साल पूरा कर चुके मुसलमान नागरिकता के लिए तुरंत आवेदन कर देंगे। उन्हें नागरिकता मिल गई तो असाम एकॉर्ड के तहत घुसपैठियों को बाहर करने का एमझौता बेकार साबित होगा और असाम के संसाधनों पर बाहरियों का कब्जा बना रहेगा। असम का नेतृत्व मार्च 1971 के बाद आए सभी शरणार्थियों और घुसपैठियों को बाहर करने पर अड़ा हुआ है।

एनआरसी अंतिम नहीं, ट्रिब्यूनल और सुप्रीम कोर्ट भी है :
ऐसा नहीं है कि एनआरसी में नाम न होने भर से कोई भी विदेशी हो जाएगा और उसे सुनवाई का मौका नहीं दिया जाएगा। एनआरसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप होने के बीच वर्ष 2014 में नई सरकार (बीजेपी) आयी तो एनआरसी का पहला चरण पूरा हुआ। इसमें असम के करीब 40 लाख बाहर हो गए। इसके बाद नए सिरे से संशोधन के साथ फाइनल ड्राफ्ट आया जिसमें यह आंकड़ा केवल 19 लाख हो गया। हालांकि एनआसी के मुताबिक संदिग्ध नागरिकों के पास भी अपना दावा साबित करने के लिए ट्रिब्यूनल और सुप्रीम कोर्ट का रास्ता खुला हुआ है।

एनआरसी के लिए चाहिए 14 में से कोई एक दस्तावेज :
असम में एनआरसी के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 14 दस्तावेजों में से किसी भी एक दस्तावेज को मान्यता दी है। देश के बाकी हिस्सों में अभी एनआसी लागू करने की कोई तारीख या नोटीफिकेशन जारी नहीं हुआ है फिर भी अगर एनआरसी लागू हुआ तो इन्हीं दस्तावेजों में कोई एक भी दस्तावेज होने पर उसका नाम एनआरसी में दर्ज हो जाएगा। ये दस्तावेज निम्न हैं :
1 वोटर लिस्ट में नाम।
2 न्यायालय से जुड़ा कोई दस्तावेज।
3 जन्म प्रमाण पत्र।
4 यूनिवर्सिटी या बोर्ड का प्रमाणपत्र।
5 सरकारी सेवा में रहने का सरकार की तरफ से जारी दस्तावेज।
6 कोई लाइसेंस या प्रमाणपत्र।
7 एलआईसी।
8 पासपोर्ट।
9 शरणार्थी कैंपों में रहने का दस्तावेज।
10 स्थायी निवास प्रमाणपत्र।
11 नागरिकता प्रमाणपत्र।
12 जमीन से जुड़ा दस्तावेज। जैसे पट्टा, बैनामा, रजिस्ट्री।
13 एनआसी 1951 की लिस्ट में नाम।

14 बैँक या पेस्ट ऑफिस की पासबुक।

मंगलवार, 13 अगस्त 2019

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के फैसले की सुनवाई हाईकोर्ट में हो सकती है क्या?


मुख्य केंद्रीय सूचना आयुक्त का कद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बराबर माना गया  है जबकि राज्य मुख्य सूचना आयुक्त का कद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के बराबर है। आरटीआई के वर्तमान प्रारूप के मुताबिक मुख्य सूचना आयुक्तों के फैसलों को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती लेकिन रिट हो सकती है। रिट होती है हाईकोर्ट में। ऐसे में सवाल था कि क्या सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस या जस्टिस के फैसले की सुनवाई हाईकोर्ट में हो सकती है? इस तरह की कुछ अनियमितताएं थीं, जो मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के प्रोटोकॉल से जुड़ी हुई हैं। इन्हें बदला जा रहा है। इसके उलट कुछ लोग जानकारी के अभाव में भ्रम का माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि सरकार आरटीआई अधिनियम में बड़े पैमाने पर बदलाव करने जा रही है जो कि गलत है। सरकार केवल केंद्र और राज्यों के मुख्य सूचना आयुक्तों व सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, वेतन, भत्ते और प्रोटोकॉल नए सिरे से तय कर रही है ताकि उसमें दिख रही अनियमितताओं को दूर कर एक तर्कसंगत प्रोटोकॉल तैयार किया जा सके। आईए समझते हैं कि क्या है वर्तमान स्थिति? क्या बदलाव किए जा रहे हैं? इसपर एक्टिविस्ट्स के क्या सवाल हैं? और उसके जवाब में सरकार का तर्क क्या है?

यह है वर्तमान तस्वीर :
कार्यकाल :
मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त नियुक्ति की तारीख से पांच वर्ष के लिए होती है लेकिन रिटायरमेंट की आयु 65 वर्ष तय है। ऐसे में अब तक नियुक्ति पांच वर्ष या 65 साल की आयु में जो पहले पूरा हो जाए, तब तक के लिए होती है। दोबारा नियुक्ति का कोई प्राविधान नहीं है।

वेतन, भत्ते प्रोटोकॉल :
केंद्र सरकार के विभागों की सुनवाई केंद्रीय सूचना आयोग करता है और राज्य सरकार के अधीन आने वाले विभागों के लिए राज्य सूचना आयोग का गठन हुआ है। केंद्रीय सूचना आयुक्त का वेतन भत्ता और प्रोटोकॉल भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त के बराबर है। वहीं केंद्रीय सूचना आयुक्तों को निर्वाचन आयुक्तों के बराबर माना गया है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त के वेतन भत्ते और प्रोटोकॉल चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के बराबर होते हैं। ऐसे में मुख्य केंद्रीय सूचना आयुक्त का स्टेटस सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बराबर माना गया। वहीं केंद्रीय सूचना आयुक्तों को निर्वाचन आयुक्त के वेतन भत्ते और प्रोटोकॉल मिलते हैं जो कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के बराबर है। यानी केंद्रीय सूचना आयुक्त का कद सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायधीश के बराबर हो गया।
राज्यों के मुख्य सूचना आयुक्त के वेतन भत्ते और प्रोटोकॉल निर्वाचन आयुक्तों के बराबर तय किए गए हैं, यानी राज्य सूचना आयुक्त का कद भी वेतन भत्तों और प्रोटोकॉल के लिहाज से सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश के बराबर हुआ। वहीं राज्य सूचना आयुक्त का वेतन भत्ते प्रोटोकॉल मुख्य सचिव के बराबर तय हैं।

यह किया जाना है बदलाव :
सरकार की तरफ से मुख्य सूचना आयुक्तों और सूचना आयुक्तों के कार्यकाल नए सिरे से तय करने की कवायद है। इसके लिए सरकार की तरफ से नियमावली में बदलाव किया जा रहा है। अभी तक अधिनियम में यह लिखा था कि नियुक्ति के बाद पांच साल तक उन्हें हटाया ही नहीं जा सकेगा। इसकी झलक उप्र में सरकार बदलने पर दिखी। सरकार ने सभी आयोगों के अध्यक्षों को बदल दिया लेकिन सूचना आयोग में तब तक कोई बदलाव नहीं किया जा सका, जबतक कि पुराने सूचना आयुक्तों ने अपना तय कार्यकाल पूरा नहीं कर लिया। हालांकि अधिनियम में बदलाव का प्रारूप सामने आने के बाद ही पता चलेगा कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में अनुशासन और नियंत्रण कितना लाने की तैयारी है?

सरकार और आरटीआई एक्टिविस्ट के अपने अपने तर्क :

सरकार : मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्तों के पद संवैधानिक पद नहीं बल्कि संविधिक पद हैं। यह पद सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत बना है लिहाजा इसकी तुलना संवैधानिक पदों से नहीं की जानी चाहिए। निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक संस्था है, जो केंद्र और राज्य सरकार के लिए चुनाव कराती है।

आरटीआई एक्टिविस्ट : अगर ऐसा है तो केंद्रीय सतर्कता आयेग (सीवीसी) के चीफ विजिलेंस कमिश्नर और विजिलेंस कमिश्नरों का पद भी संवैधानिक नहीं है। यह भी एक अधिनियम के तहत बना है, लिहाजा इस संविधिक पद के वेतन भत्तों और प्रोटोकॉल में बदलाव का प्रस्ताव क्यों नहीं है? इसके चीफ विजिलेंस कमिश्नर का वेतन भी वही है जो यूनियन पब्लिक कमिशन के चेयरमैन का है। इसपर सरकार खामोश क्यों है?

सरकार : इसका कारण है। आरटीआई में लिखा है कि मुख्य सूचना आयुक्त का जो भी निर्णय होगा, उसकी अपील किसी भी अदालत में नहीं हो सकेगी। हालांकि संवैधानिक समाधान का हक नहीं छीना जा सकता, लिहाजा 226 के तहत रिट हो सकती है। रिट होती है हाईकोर्ट में। यानी मुख्य सूचना आयुक्त से अगर कोई असंतुष्ट हैं तो अगला फोरम हाईकोर्ट है। यहीं पर तकनीकी खामी सामने आ रही है। जैसा कि हमने पहले बता दिया था कि वेतन भत्ते और प्रोटोकॉल के लिहाज से मुख्य सूचना आयुक्त का कद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बराबर है। ऐसे में मुख्य सूचना आयुक्त के फैसले की रिट हाईकोर्ट में किया जाना अनियमितता है, क्योंकि उनका कद सुप्रीम कोर्ट की चीफ जस्टिस के बराबर है। इसके उलट सीवीसी के अधिनियम में पहले से ही यह नियम है कि उसके फैसले को केवल सुप्रीम कोर्ट में ही चुनौती दी जा सकती है। ऐसे में प्रोटोकॉल के लिहाज से सीवीसी और कोर्ट के बीच कोई अनियमितता नहीं है।

एक्टिविस्ट : कार्यकाल, वेतन, भत्ते और प्रोटोकॉल नए सिरे से तय होने पर मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त निष्पक्ष तरीके से काम नहीं कर सकेंगे और वो सरकार के अधीन हो जाएंगे।

सरकार : ऐसी चिंता बेबुनियाद है क्योंकि वेतन, भत्ते और प्रोटोकॉल कुछ भी तय कर दिया जाए, केंद्रीय और राज्य सूचना आयुक्त सुनवाई और कार्यवाही सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत ही करेंगे और  उसमें किसी भी तरह का बदलाव नहीं किया जा रहा।

बुधवार, 30 जनवरी 2019

…तो क्या राष्ट्रपिता की हत्या में सरकार भी शामिल थी


आजाद भारत में महात्मा गांधी की हत्या पहली राजनैतिक हत्या थी। हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मजेदार बात यह है कि आजाद भारत में गांधी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ही ऐसे थे जो जवाहर के फैसलों को प्रभावित कर सकते थे। ऐसे में गांधी की हत्या हो गई और इस हत्या के आरोप में आरएसएस पर प्रतिबंध लग गया। अब इसे सोची समझी साजिश कहें, हादसा कहें या महज इत्तेफाक कि एक ही झटके में ब्रिटेन की पहली पसंद जवाहर लाल नेहरू के रास्ते से दोनों कांटे निकल गए और जवाहर के फैसलों पर सवाल उठाने वाला या उन्हें प्रभावित करने वाला कोई नहीं बचा।
          मेरे ऐसा सोंचने की कई वजहें हैं। जवाहर लाल नेहरू बंटवारे के लिए तैयार थे, मोहम्मद अली जिन्ना बंटवारे के लिए तैयार थे भारत के आखिरी महाराज्यपाल (गवर्नर जनरल) बंटवारे के लिए तैयार थे। इन तीनों की रजामंदी के बावजूद महात्मा गांधी अकेले बंटवारे की योजना के खिलाफ थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद लंदन के हितों को देखते हुए महाराज्यपाल भारत में काम कर रही ब्रिटेन की कंपनियों को हटाने के खिलाफ थे, जवाहर लाल भी बड़ी मशीनों के पक्ष लेते हुए इन कंपनियों को रोकने और उन्हें रियायतें देने के पक्ष में खड़े थे लेकिन महात्मा गांधी लघु उद्योग, हथकरघा और स्वदेशी का झंडा उठाए महाराज्यपाल और जवाहर की राह का रोड़ा बने हुए थे। इस बीच महात्मा गांधी को मारने के लिए 1934 में पुणे में सबसे पहला हमला हुआ। इसके बाद मई 1944, सितंबर 1944 और 20 जनवरी 1948 को हत्या की कोशिशें नाकाम हुईं। इसके बाद पांचवां प्रयास 30 जनवरी को हुआ, जिसमें राष्ट्रपिता की आवाज हे राम के साथ हमेशा के लिए खामोश हो गई। चौंकाने वाली बात यह है कि हत्या से पहले गांधी जी को मारने की तीन कोशिशों में नाथू राम गाड़से का नाम आया था। इन घटनाओं के वक्त देश में या तो ब्रिटेन के प्रतिनिधि महाराज्यपाल के हाथों में शासन प्रशासन की बागडोर थी या फिर कांग्रेस के हाथों में। इसके बावजूद महाराज्यपाल से लेकर कांग्रेस सरकार तक ने आरोपी को खुला धूमने की छूट दे रखी थी। बहुत मुमकिन है कि भारत पाकिस्तान बंटवारा रोकने और  उसके बाद विदेशी कंपनियों के बजाय स्वदेशी का तरजीह देने के फैसले से जवाहर और ब्रिटेन के आर्थिक राजनैतिक हित इस कदर प्रभावित हो रहे हों कि उन्हें रास्ते से हटाने के लिए नाथू राम गोडसे का इस्तेमाल किया गया हो। राजनैतिक हत्याओं में अक्सर ऐसी साजिशें पढ़ने और सुनने को मिलती हैं। महात्मा गांधी की हत्या होने के बाद ब्रिटेन और जवाहर के रास्ते से दो पत्थर एक साथ हट गए। सवाल यह भी है कि 1944 से 1948 के बीच गांधी जी पर चार बार जानलेवा हमला हुआ। इसे देखते हुए कम से कम उनकी सुरक्षा में इंटेलिजेंस और सीक्रेट सर्विस एजेंट्स को तो लगाया ही जा सकता था लेकिन ऐसा करने के बजाय राष्ट्रपित को बिरला हाउस में उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। आज के दौर में हुआ होता तो मीडिया सरकार की जिम्मेदारी तय करने से पीछे नहीं हटती।