शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

अब राम, राष्ट्र और रक्षा का सहारा


यह समझना रॉकेट साइंस नहीं था कि अगर आरक्षण की समीक्षा कर बिहार हार सकते हैं तो एससी/एसटी एक्ट के मुद्दे पर राजस्थान, छत्तीसगढ़ और राजस्थान भी जीतना मुश्किल होगा। बीजेपी रणनीतिकारों को इन दो प्रयोगों के बाद पता चल गया होगा कि जातियों से जुड़े मुद्दे छेड़ना किसी भी सूरत में लाभकारी नहीं होगा। मुझे पूरी उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी का पूरा फोकस राम, राष्ट्र और रक्षा पर होगा। इसके तहत राममंदिर निर्माण, राष्ट्रवाद से जुड़े मुद्दों को उभारना और सीमा पर युद्ध जैसे हालात पैदा हो सकते हैं या किए जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट से शुक्रवार (12 दिसंबर) को रफेल विमान रक्षा सौदे में मिली राहत को इस दिशा में बढ़ाया गया पहला कदम माना जा सकता है।
       जो लोग इन नतीजों के लिए नोटबंदी और जीएसटी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि राष्ट्र हित का दावा करते हुए लिए गए फैसलों को जनता ने अपना पूरा समर्थन दिया। मतदाताओं को नाराज कर सकने वाले इन फैसलों के चंद महीनों बाद ही गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश और चंड़ीगढ़ में निकाय चुनाव हुए जिसमें बीजेपी को पहले से बड़ी जीत हासिल हुई। नोटबंदी के 19 दिन बाद 27 नवंबर को आए निकाय चुनावों में बीजेपी ने 126 सीटों में 109 पर जीत हासिल की। वहीं महाराष्ट्र के 3727 निकाय सीटों में से बीजेपी ने 893 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि वर्ष 2011 में बीजेपी के पास केवल 298 सीटें ही थीं। यही नहीं नोटबंदी के महज चार महीने बाद ही उप्र, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव नतीजे बीजेपी की झोली में आए। इनमें से उप्र और उत्तराखंड में बीजेपी को ऐतिहासिक जीत हासिल हुई जबकि मणिपुर में पहली बार कमल खिला। वहीं गोवा में भी बीजेपी जोड़तोड़ कर सरकार बनाने में कामयाब रही।
        इसके बाद बीजेपी ने राष्ट्रहित के मुद्दों के बजाय जातीय मुद्दों पर ध्यान देना शुरू किया, जो उसके लिए घातक साबित हुआ। सबसे पहले यह प्रयोग बिहार चुनाव के दौरान किया गया, जब संघ प्रमुख से आरक्षण की समीक्षा का शिगूफा छोड़ा। नतीजा हुआ कि जीता हुआ चुनाव बीजेपी हार गई। इसके बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव से पहले एससी/एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किए गए संशोधन को संसद से बदल दिया गया। खुद को बीजेपी का मूल वोटर मानने वाले सवर्णों ने इसे बीजेपी सरकार द्वारा धोखे के तौर देखा और जीता हुआ चुनाव हरवा दिया। मध्य प्रदेश और राजस्थान में नोटा दबाने वाले मतदाताओं की संख्या चार से पांच लाख है। जाहिर सी बात है कि घर से वोट डालने गए जिन लोगों ने नोटा दबाया, उसमें से ज्यादातर कभी बीजेपी को समर्थन देने वाले लोग ही थे।

        इन तमाम उलटफेर और प्रयोगों के बाद यह साफ है कि इस देश में किसी भी तबके की नाराजगी लेकर चुनाव नहीं जीता जा सकता। ऐसे में ऐसी नीतियां बननी चाहिए जो 125 करोड़ भारतीयों को प्रभावित करे ना कि दलितों के लिए अलग, सवर्णों के लिए अलग, हिंदुओं के लिए अलग, मुस्लिमों के लिए अलग, सिख और ईसाईयों के लिए अलग। इस देश ने टुकड़े टुकड़े गैंग को ना कभी बर्दाश्त किया था और ना ऐसा करने वालों को कभी बर्दाश्त करेगा।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें