नागरिकता संशोधन कानून का भारतीय हिंदू या मुसलमानों
से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान से आने
वाले मुस्लिमों को नागरिता देने पर पाबंदी भी नहीं लगायी गई है। नागरिकता संशोधन कानून
के तहत केवल इन देशों में धर्म के नाम पर उत्पीड़न का शिकार हुए हिंदू, सिख, पारसी,
जैन और क्रश्चियनों को नागरिकता देने के नियमों में कुछ ढ़ील देने का फैसला किया गया
है। नियमों के मुताबिक कोई भी विदेशी शख्स (मुस्लिम भी) भारत में 11 साल रह ले तो वो
भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है। गृहमंत्रालय आवेदन के गुण दोष को देखते हुए
नागरिकता देने का फैसला करेगा। नागरिकता संशोधन कानून में केवल इतना बदलाव किया गया
है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आले वाले हिंदू, सिख, जैन, पारसी और
इसाई केवल पांच साल भी भारत में बिता ले तो उन्हें नागरिकता दी जा सकती है।
इसके साथ ही ऐसा भी नहीं है कि विदेशों से आने
वाले हिंदू, मुस्लिम, सिख, जैन, पारसी या क्रिश्चियन आते रहेंगे और भारत उन्हें नागरिकता
देता रहेगा। इस कानून के तहत केवल उन्हें ही नागरिकता दिए जाने पर विचार किया जाएगा,
जो दिसंबर 2014 तक भारत में आ चुके थे और यहीं रह रहे हैं। ऐसे मुस्लिम अगर इस तारीख
तक 11 साल पूरा कर चुके हैं तो वो भी नागरिकता के लिए हिंदू, सिख, पारसी, जैन और क्रिश्चियनों
की तरह ही आवेदन कर सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि इसमें किसी भी तरह की आपत्ति या विवाद
होना चाहिए क्योंकि बेहतर जीवन की तलाश में भारत आने वाले गरीब मुसलमानों के बजाय जीवन
और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए भारत की जमीन पर आने वाले अल्पसंख्यकों को कुछ रियायत
तो मिलनी ही चाहिए। यह रियायत देना न तो संविधान की मूल भावना के उलट है और न ही स्वतंत्रता
संग्राम के नायकों की मंशा के खिलाफ। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारत पाकिस्तान
बंटवारे के बाद 26 सितंबर 1947 में कहा था कि ‘पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू और सिख
हर नजरिए से भारत आ सकते हैं अगर वो वहां निवास नहीं करना चाहते हैं। उस स्थिति में
उन्हें नौकरी देना और उनके जीवन को सामान्य बनाना, भारत सरकार का पहला कर्तव्य है’।
पांच और 11 साल का भेद क्यों?
संविधान के मुताबिक भारत की जमीन पर मौजूद सभी
व्यक्तियों पर लगने वाला कानून समान होगा। ऐसे में विदेशी मुस्लिमों को 11 साल रहने
के बाद नागरिकता देने और मुस्लिम देशों से भागकर आने वाले अल्पसंख्यकों को महज पांच
साल में रहने पर ही नागरिकता दिए जाने के फैसले पर सवाल उठ रहा है। जानकारों के मुताबिक
व्यक्ति के इतर नागरिकों को सुविधाएं और अवसर की समानता का अधिकार देने के मामले में
भी ऐसे कानून बनाने पड़ते हैं जिन्हें लेकर समानता के अधिकार पर सवाल खड़े हो सकते
हैं। आरक्षण का कानून भी ऐसा ही एक कानून है। जिस तरह कमजोर तबकों को मुख्य धारा में
लाने के लिए उन्हें आरक्षण समेत विशेष रियायतें दी जानी जरूरी हैं, वैसे ही बेहतर जीवन
शैली के लिए भारत आने वाले मुसलमानों के बजाय पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश
में अपना सबकुछ छोड़कर जीवन, परिवार और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए भारत आने वाले अल्पसंख्यकों
को विशेष रियायत और तरजीह दिया जाना जरूरी है।
रोहिंग्या, अहमदिया और शियों को राहत क्यों नहीं?
अगर भारत सरकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए
नागरिकता संशोधन बिल में रियायत का दावा कर रही है तो रोहिंग्या, अहमदिया और शिया समुदाय
को इससे बाहर क्यों रखा गया है? एक एक वाजिब सवाल है लेकिन भारत सरकार का दावा है कि
रोहिंग्या मुस्लिम वर्मा के बजाय बांग्लादेश की तरफ से भारत आते हैं। बांग्लादेश पहले
उन्हें अपने यहां शरण देता है और फिर चुपके से भारत में घुसपैठ करा देता है। ऐसे में
उन्हें शरणार्थी नहीं माना जा सकता। वहीं पाकिस्तान ने बकायदा शासनादेश जारी करते हुए
अहमदिया/कादियानी को मुस्लिम मानने से इंकार कर दिया है। यही नहीं पाकिस्तान में वोहरा
समुदाय पर भी बड़े अत्याचार किए जाते हैं। शियों की स्थिति भी चिंताजनक है। ऐसे में
भारत सरकार को इस समुदाय के लोगों को भी अल्पसंख्यक मानते हुए नागरिकता के नियमों में
ढील का फायदा देना चाहिए। हालांकि भारत सरकार अहमदिया/कादियानी को मुसलमान ही मानती
है। वहीं, पाकिस्तान में सताए जाने वाले शिया समुदाय के लोग भारत के बजाय ईरान या यूरोप
जाने को तरजीह देते हैं। हालांकि इस बीच शिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने पाकिस्तान के शियों
को भी राहत देने की मांग शुरू कर दी है।
अल्पसंख्यकों को सुरक्षा नहीं दे सका पाकिस्तान :
अंग्रेजी शासन से आजादी और भारत पाकिस्तान बंटवारे
के बाद सबसे बड़ा संकट दोनों देशों के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके आत्मसम्मान
की रक्षा का था। इसके लिए 1951 में नेहरू लियाकत समझौता हुआ। दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों
की सुरक्षा के लिए हर संभव कदम उठाने का फैसला किया गया। भारतयी प्रधानमंत्री नेहरू
ने इसे पूरी तरह से अमल में लाते हुए भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के बजाय पंथ
निरपेक्षता का रास्ता चुना, वहीं पाकिस्तान में ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि लियाकत को ही
गोली मार दी गई। इसके बाद वहां धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना होती रही।
बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक मार दिए गए, कंवर्ट कर दिए गए या भगा दिए गए। इन तमाम देशों
में अल्पसंख्यकों की आबादी के सरकारी आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं। यह साफ है कि
देश का बंटवारा होने के बाद पाकिस्तान ने नेहरू लियाकत समझौते का पालन नहीं किया, ऐसे
में वहां के अल्पसंख्यक कहां जाएंगे? लिहाजा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उस आश्वासन
के मुताबिक जो उन्होंने पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू और सिखों को 1947 में दिया था,
वर्तमान भारत सरकार ऐसे अल्पसंख्यकों को शरण देने के नियमों में ढील देता है तो कोई
दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
समस्या की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
भारत में घुसपैठ और शरणार्थियों की समस्या देश
के बंटवारे से जुड़ी हुई है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक ही जमीन के तीन टुकड़े
हैं। 15 अगस्त 1947 में भारत पाकिस्तान बंटवारे के वक्त करीब 72 लाख मुसलमान भारत से
पाकिस्तान गए और करीब 73 लाख हिंदू, सिख, जैन, पारसी और क्रश्चियन पाकिस्तान से भारत
आए। सीमाओं पर रहने वाले दोनों तरफ के नागरिकों की बोली, रहन सहन और परिवेश लगभग एक
जैसे हैं। ऐसे में महज उन्हें देखकर उनके विदेशी होने की पहचान करना मुश्किल है। इसका
फायदा उठाते हुए 1947 के बाद भी कभी बेहतर रोजगार तो कभी धार्मिक सुरक्षा के लिए आजादी
के बाद से लगातार घुसपैठ होती रही है।
असम की चिंता, सुप्रीम कोर्ट और एनआसी :
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर सबसे बड़ा विरोध
असम में हुआ। इसकी बड़ी वजह यह है कि वहां जमे हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता दे दी
गई तो, बाहरियों की आबादी मूल असमियों से ज्यादा हो जाएगी। ऐसा होना सीधे तौर पर उनकी
संस्कृति, रहन सहन, भाषा और संसाधनों का अतिक्रमण होगा। बांग्लादेश की तरफ से आ रहे
घुसपैठियों और शरणार्थियों की बढ़ती संख्या को लेकर असम के नागरिक लंबे समय से आंदोलन
करते रहे हैं। बहुत दिनों तक आंदोलन के बाद वर्ष 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव
गांधी के साथ असमा एकॉर्ड साइन हुआ। इसमें तय हुआ कि जो लोग वर्ष 1951 से लेकर
1961 के बीच बांग्लादेश से भारत आ गए हैं, उन्हें नागरिकता दे दी जाए। इसके साथ ही
जो लोग 1961 के बाद मार्च 1971 तक भारत आए हैं, उन्हें नागरिकता तो दे दी जाए लेकिन
उन्हें मतदान का अधिकार नहीं होगा। मार्च 71 के बाद जो भी आया है उसे वापस जाना होगा।
इस एकॉर्ड के मुताबिक मार्च 1971 के बाद आए हुए हर शरणार्थी या घुसपैठिए को विदेशी
मानते हुए कार्यवाही का फैसला किया गया। अब यह तय कैसे होगा कि कौन किस तारीख को आया?
इसके लिए एक रजिस्टर बनाने का फैसला हुआ, जिसमें इन तमाम मानकों के साथ वैध नागरिकों
का ब्योरा दर्ज किया जाना था। इसे ही राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) कहा गया।
उसमें कुछ तय मानक हैं, जिनके आधार पर नाम दर्ज किया जाना था। समझौता होने के बाद भी
1985 के बाद से सरकारें इसे टालती रहीं। मजबूर होकर सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2013 में
हस्तक्षेप करते हुए इस मामले में केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगायी और अपनी देखरेख
में एनआसी का काम शुरू करा दिया। इसमें पहले चरण में 40 लाख विदेशियों की पहचान की
गई लेकिन आपत्तियों की सुनवाई के बाद यह आंकड़ा केवल 19 लाख बचा। इसमें से 13 लाख हिंदू
और छह लाख मुसलमान हैं। नागरिकता संशोधन कानून के तहत इनमें से पांच साल पूरा कर चुके
हिंदुओं और 11 साल पूरा कर चुके मुसलमान नागरिकता के लिए तुरंत आवेदन कर देंगे। उन्हें
नागरिकता मिल गई तो असाम एकॉर्ड के तहत घुसपैठियों को बाहर करने का एमझौता बेकार साबित
होगा और असाम के संसाधनों पर बाहरियों का कब्जा बना रहेगा। असम का नेतृत्व मार्च
1971 के बाद आए सभी शरणार्थियों और घुसपैठियों को बाहर करने पर अड़ा हुआ है।
एनआरसी अंतिम नहीं, ट्रिब्यूनल और सुप्रीम कोर्ट भी है :
ऐसा नहीं है कि एनआरसी में नाम न होने भर से
कोई भी विदेशी हो जाएगा और उसे सुनवाई का मौका नहीं दिया जाएगा। एनआरसी को लेकर सुप्रीम
कोर्ट का हस्तक्षेप होने के बीच वर्ष 2014 में नई सरकार (बीजेपी) आयी तो एनआरसी का
पहला चरण पूरा हुआ। इसमें असम के करीब 40 लाख बाहर हो गए। इसके बाद नए सिरे से संशोधन
के साथ फाइनल ड्राफ्ट आया जिसमें यह आंकड़ा केवल 19 लाख हो गया। हालांकि एनआसी के मुताबिक
संदिग्ध नागरिकों के पास भी अपना दावा साबित करने के लिए ट्रिब्यूनल और सुप्रीम कोर्ट
का रास्ता खुला हुआ है।
एनआरसी के लिए चाहिए 14 में से कोई एक दस्तावेज :
असम में एनआरसी के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 14 दस्तावेजों
में से किसी भी एक दस्तावेज को मान्यता दी है। देश के बाकी हिस्सों में अभी एनआसी लागू
करने की कोई तारीख या नोटीफिकेशन जारी नहीं हुआ है फिर भी अगर एनआरसी लागू हुआ तो इन्हीं
दस्तावेजों में कोई एक भी दस्तावेज होने पर उसका नाम एनआरसी में दर्ज हो जाएगा। ये
दस्तावेज निम्न हैं :
1 वोटर लिस्ट में नाम।
2 न्यायालय से जुड़ा कोई दस्तावेज।
3 जन्म प्रमाण पत्र।
4 यूनिवर्सिटी या बोर्ड का प्रमाणपत्र।
5 सरकारी सेवा में रहने का सरकार की तरफ से जारी
दस्तावेज।
6 कोई लाइसेंस या प्रमाणपत्र।
7 एलआईसी।
8 पासपोर्ट।
9 शरणार्थी कैंपों में रहने का दस्तावेज।
10 स्थायी निवास प्रमाणपत्र।
11 नागरिकता प्रमाणपत्र।
12 जमीन से जुड़ा दस्तावेज। जैसे पट्टा, बैनामा,
रजिस्ट्री।
13 एनआसी 1951 की लिस्ट में नाम।
14 बैँक या पेस्ट ऑफिस की पासबुक।