मुख्य केंद्रीय
सूचना आयुक्त का कद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बराबर माना गया है जबकि राज्य
मुख्य सूचना आयुक्त का कद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के बराबर है। आरटीआई के वर्तमान प्रारूप के मुताबिक मुख्य सूचना आयुक्तों के फैसलों को किसी
भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती लेकिन रिट हो सकती है। रिट होती है हाईकोर्ट में।
ऐसे में सवाल था कि क्या सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस या जस्टिस के फैसले की सुनवाई
हाईकोर्ट में हो सकती है? इस तरह की कुछ अनियमितताएं थीं, जो मुख्य सूचना आयुक्त
और सूचना आयुक्तों के प्रोटोकॉल से जुड़ी हुई हैं। इन्हें बदला जा रहा है। इसके उलट
कुछ लोग जानकारी के अभाव में भ्रम का माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि सरकार आरटीआई अधिनियम में बड़े पैमाने पर बदलाव करने जा रही है जो कि गलत है।
सरकार केवल केंद्र और राज्यों के मुख्य सूचना आयुक्तों व सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, वेतन, भत्ते और प्रोटोकॉल
नए सिरे से तय कर रही है ताकि उसमें दिख रही अनियमितताओं को दूर कर एक तर्कसंगत प्रोटोकॉल तैयार किया जा सके। आईए समझते हैं कि क्या है वर्तमान
स्थिति? क्या बदलाव किए जा रहे हैं? इसपर एक्टिविस्ट्स के क्या सवाल हैं? और उसके जवाब में सरकार का तर्क क्या है?
यह है वर्तमान
तस्वीर :
कार्यकाल :
मुख्य सूचना आयुक्त
और सूचना आयुक्त नियुक्ति की तारीख से पांच वर्ष के लिए होती है लेकिन रिटायरमेंट की
आयु 65 वर्ष तय है। ऐसे में अब तक नियुक्ति पांच वर्ष या 65 साल की आयु में जो पहले
पूरा हो जाए, तब तक के लिए होती है। दोबारा नियुक्ति का कोई प्राविधान नहीं है।
वेतन, भत्ते प्रोटोकॉल
:
केंद्र सरकार के
विभागों की सुनवाई केंद्रीय सूचना आयोग करता है और राज्य सरकार के अधीन आने वाले विभागों
के लिए राज्य सूचना आयोग का गठन हुआ है। केंद्रीय सूचना आयुक्त का वेतन भत्ता और प्रोटोकॉल
भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त के बराबर है। वहीं केंद्रीय सूचना आयुक्तों को निर्वाचन
आयुक्तों के बराबर माना गया है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त के वेतन भत्ते और प्रोटोकॉल
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के बराबर होते हैं। ऐसे में मुख्य केंद्रीय सूचना आयुक्त का स्टेटस
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बराबर माना गया। वहीं केंद्रीय सूचना आयुक्तों को निर्वाचन
आयुक्त के वेतन भत्ते और प्रोटोकॉल मिलते हैं जो कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के बराबर
है। यानी केंद्रीय सूचना आयुक्त का कद सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायधीश के बराबर हो
गया।
राज्यों के मुख्य
सूचना आयुक्त के वेतन भत्ते और प्रोटोकॉल निर्वाचन आयुक्तों के बराबर तय किए गए हैं,
यानी राज्य सूचना आयुक्त का कद भी वेतन भत्तों और प्रोटोकॉल के लिहाज से सुप्रीम कोर्ट
के न्यायधीश के बराबर हुआ। वहीं राज्य सूचना आयुक्त का वेतन भत्ते प्रोटोकॉल मुख्य
सचिव के बराबर तय हैं।
यह किया जाना है
बदलाव :
सरकार की तरफ से
मुख्य सूचना आयुक्तों और सूचना आयुक्तों के कार्यकाल नए सिरे से तय करने की कवायद है।
इसके लिए सरकार की तरफ से नियमावली में बदलाव किया जा रहा है। अभी तक अधिनियम में यह
लिखा था कि नियुक्ति के बाद पांच साल तक उन्हें हटाया ही नहीं जा सकेगा। इसकी झलक उप्र
में सरकार बदलने पर दिखी। सरकार ने सभी आयोगों के अध्यक्षों को बदल दिया लेकिन सूचना
आयोग में तब तक कोई बदलाव नहीं किया जा सका, जबतक कि पुराने सूचना आयुक्तों ने अपना
तय कार्यकाल पूरा नहीं कर लिया। हालांकि अधिनियम में बदलाव का प्रारूप सामने आने के
बाद ही पता चलेगा कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में अनुशासन
और नियंत्रण कितना लाने की तैयारी है?
सरकार और आरटीआई
एक्टिविस्ट के अपने अपने तर्क :
सरकार : मुख्य
सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्तों के पद संवैधानिक पद नहीं बल्कि संविधिक पद हैं। यह
पद सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत बना है लिहाजा इसकी तुलना संवैधानिक पदों से नहीं
की जानी चाहिए। निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक संस्था है, जो केंद्र और राज्य सरकार के
लिए चुनाव कराती है।
आरटीआई एक्टिविस्ट
: अगर ऐसा है तो केंद्रीय सतर्कता आयेग (सीवीसी) के चीफ विजिलेंस कमिश्नर और विजिलेंस कमिश्नरों का पद भी संवैधानिक नहीं है। यह भी एक अधिनियम
के तहत बना है, लिहाजा इस संविधिक पद के वेतन भत्तों और प्रोटोकॉल में बदलाव का प्रस्ताव
क्यों नहीं है? इसके चीफ विजिलेंस कमिश्नर का वेतन भी वही है जो यूनियन पब्लिक कमिशन के चेयरमैन
का है। इसपर सरकार खामोश क्यों है?
सरकार : इसका कारण है। आरटीआई में लिखा है कि मुख्य सूचना आयुक्त का जो भी निर्णय होगा, उसकी अपील किसी भी अदालत में नहीं हो सकेगी। हालांकि संवैधानिक समाधान का हक नहीं छीना जा सकता, लिहाजा 226 के तहत रिट हो सकती है। रिट होती है हाईकोर्ट में। यानी मुख्य सूचना आयुक्त से अगर कोई असंतुष्ट हैं तो अगला फोरम हाईकोर्ट है। यहीं पर तकनीकी खामी सामने आ रही है। जैसा कि हमने पहले बता दिया था कि वेतन भत्ते और प्रोटोकॉल के लिहाज से मुख्य सूचना आयुक्त का कद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बराबर है। ऐसे में मुख्य सूचना आयुक्त के फैसले की रिट हाईकोर्ट में किया जाना अनियमितता है, क्योंकि उनका कद सुप्रीम कोर्ट की चीफ जस्टिस के बराबर है। इसके उलट सीवीसी के अधिनियम में पहले से ही यह नियम है कि उसके फैसले को केवल सुप्रीम कोर्ट में ही चुनौती दी जा सकती है। ऐसे में प्रोटोकॉल के लिहाज से सीवीसी और कोर्ट के बीच कोई अनियमितता नहीं है।
सरकार : इसका कारण है। आरटीआई में लिखा है कि मुख्य सूचना आयुक्त का जो भी निर्णय होगा, उसकी अपील किसी भी अदालत में नहीं हो सकेगी। हालांकि संवैधानिक समाधान का हक नहीं छीना जा सकता, लिहाजा 226 के तहत रिट हो सकती है। रिट होती है हाईकोर्ट में। यानी मुख्य सूचना आयुक्त से अगर कोई असंतुष्ट हैं तो अगला फोरम हाईकोर्ट है। यहीं पर तकनीकी खामी सामने आ रही है। जैसा कि हमने पहले बता दिया था कि वेतन भत्ते और प्रोटोकॉल के लिहाज से मुख्य सूचना आयुक्त का कद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बराबर है। ऐसे में मुख्य सूचना आयुक्त के फैसले की रिट हाईकोर्ट में किया जाना अनियमितता है, क्योंकि उनका कद सुप्रीम कोर्ट की चीफ जस्टिस के बराबर है। इसके उलट सीवीसी के अधिनियम में पहले से ही यह नियम है कि उसके फैसले को केवल सुप्रीम कोर्ट में ही चुनौती दी जा सकती है। ऐसे में प्रोटोकॉल के लिहाज से सीवीसी और कोर्ट के बीच कोई अनियमितता नहीं है।
एक्टिविस्ट : कार्यकाल,
वेतन, भत्ते और प्रोटोकॉल नए सिरे से तय होने पर मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त
निष्पक्ष तरीके से काम नहीं कर सकेंगे और वो सरकार के अधीन हो जाएंगे।
सरकार : ऐसी चिंता बेबुनियाद है क्योंकि वेतन, भत्ते और प्रोटोकॉल कुछ भी तय कर दिया जाए, केंद्रीय और राज्य सूचना आयुक्त सुनवाई और कार्यवाही सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत ही करेंगे और उसमें किसी भी तरह का बदलाव नहीं किया जा रहा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें