बुधवार, 30 जनवरी 2019

…तो क्या राष्ट्रपिता की हत्या में सरकार भी शामिल थी


आजाद भारत में महात्मा गांधी की हत्या पहली राजनैतिक हत्या थी। हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मजेदार बात यह है कि आजाद भारत में गांधी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ही ऐसे थे जो जवाहर के फैसलों को प्रभावित कर सकते थे। ऐसे में गांधी की हत्या हो गई और इस हत्या के आरोप में आरएसएस पर प्रतिबंध लग गया। अब इसे सोची समझी साजिश कहें, हादसा कहें या महज इत्तेफाक कि एक ही झटके में ब्रिटेन की पहली पसंद जवाहर लाल नेहरू के रास्ते से दोनों कांटे निकल गए और जवाहर के फैसलों पर सवाल उठाने वाला या उन्हें प्रभावित करने वाला कोई नहीं बचा।
          मेरे ऐसा सोंचने की कई वजहें हैं। जवाहर लाल नेहरू बंटवारे के लिए तैयार थे, मोहम्मद अली जिन्ना बंटवारे के लिए तैयार थे भारत के आखिरी महाराज्यपाल (गवर्नर जनरल) बंटवारे के लिए तैयार थे। इन तीनों की रजामंदी के बावजूद महात्मा गांधी अकेले बंटवारे की योजना के खिलाफ थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद लंदन के हितों को देखते हुए महाराज्यपाल भारत में काम कर रही ब्रिटेन की कंपनियों को हटाने के खिलाफ थे, जवाहर लाल भी बड़ी मशीनों के पक्ष लेते हुए इन कंपनियों को रोकने और उन्हें रियायतें देने के पक्ष में खड़े थे लेकिन महात्मा गांधी लघु उद्योग, हथकरघा और स्वदेशी का झंडा उठाए महाराज्यपाल और जवाहर की राह का रोड़ा बने हुए थे। इस बीच महात्मा गांधी को मारने के लिए 1934 में पुणे में सबसे पहला हमला हुआ। इसके बाद मई 1944, सितंबर 1944 और 20 जनवरी 1948 को हत्या की कोशिशें नाकाम हुईं। इसके बाद पांचवां प्रयास 30 जनवरी को हुआ, जिसमें राष्ट्रपिता की आवाज हे राम के साथ हमेशा के लिए खामोश हो गई। चौंकाने वाली बात यह है कि हत्या से पहले गांधी जी को मारने की तीन कोशिशों में नाथू राम गाड़से का नाम आया था। इन घटनाओं के वक्त देश में या तो ब्रिटेन के प्रतिनिधि महाराज्यपाल के हाथों में शासन प्रशासन की बागडोर थी या फिर कांग्रेस के हाथों में। इसके बावजूद महाराज्यपाल से लेकर कांग्रेस सरकार तक ने आरोपी को खुला धूमने की छूट दे रखी थी। बहुत मुमकिन है कि भारत पाकिस्तान बंटवारा रोकने और  उसके बाद विदेशी कंपनियों के बजाय स्वदेशी का तरजीह देने के फैसले से जवाहर और ब्रिटेन के आर्थिक राजनैतिक हित इस कदर प्रभावित हो रहे हों कि उन्हें रास्ते से हटाने के लिए नाथू राम गोडसे का इस्तेमाल किया गया हो। राजनैतिक हत्याओं में अक्सर ऐसी साजिशें पढ़ने और सुनने को मिलती हैं। महात्मा गांधी की हत्या होने के बाद ब्रिटेन और जवाहर के रास्ते से दो पत्थर एक साथ हट गए। सवाल यह भी है कि 1944 से 1948 के बीच गांधी जी पर चार बार जानलेवा हमला हुआ। इसे देखते हुए कम से कम उनकी सुरक्षा में इंटेलिजेंस और सीक्रेट सर्विस एजेंट्स को तो लगाया ही जा सकता था लेकिन ऐसा करने के बजाय राष्ट्रपित को बिरला हाउस में उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। आज के दौर में हुआ होता तो मीडिया सरकार की जिम्मेदारी तय करने से पीछे नहीं हटती।