पेट्रोल डीजल घरेलू सिलेंडर की लगातार बढ़ती कीमतें, नोटबंदी,
जीएसटी, आरक्षण की समीक्षा और एससी एसटी एक्ट में संशोधन समेत जनता को नाराज करने
वाले तमाम फैसलों के बावजूद मोदी के खिलाफ संसद से सड़क तक विपक्ष का हर दांव
बेकार साबित हो रहा है। पहले संसद में अविश्वास प्रस्ताव गिर गया और अब एक बाद एक
दो बार भारत बंद कोई खास असर नहीं छोड़ सका। यह स्थिति पैदा होने के लिए मोदी
मैजिक से कहीं ज्यादा विपक्ष में लोहिया, जेपी, राजनारायण, अजय मुखर्जी, नम्बूदरी पाद, ज्योति बसु, लाल कृष्ण आड़वाणी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं की कमी असल वजह है। इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा के दौर से
उलट मोदी युग में विपक्ष का एक भी ऐसा चेहरा नहीं है जो सरकार के किसी फैसले के खिलाफ आवाज उठाए और जनता उसके पीछे चल पड़े। ट्रेनें रुक जाएं। स्कूल दफ्तर बंद हो जाएं या सामने लाए जाने वाले दस्तावेजों और खुलासों से सरकार को असहज होना पड़े।
इतिहास खुद को दोहराता
है और इस बार यह दोहराव इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी के रूप में हमारे सामने
है। केंद्र में 335 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत, 19 प्रदेशों में बीजेपी या गठबंधन
की सरकारें और निकायों में भी भगवा लहर। चुनाव दर चुनाव बीजेपी की इस जीत के बाद
संगठन से लेकर पार्टी के बड़े पदाधिकारी भी अब विचारधारा से कहीं ज्यादा अहमियत
नरेंद्र मोदी के चेहरे को दे रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र के लिए एकदलीय प्रभुत्व की
यह पहली या चौंकाने वाली घटना नहीं है। इससे पहले वर्ष 1962, 1967 और 1971 में
कांग्रेस में भी पार्टी और विचारधारा के बजाय इंदिरा गांधी का चेहरा ज्यादा
प्रभावशाली होकर उभरा। देश की जनता ने वर्ष 1962 में कांग्रेस को 364 सीटें दीं,
हालांकि इस जीत के पीछे इंदिरा के बजाय संगठन की भी काफी अहम भूमिका थी। इसके बाद
गूंगी गुडिया कही जाने वाली इंदिरा ने पार्टी और संगठन के भीतर अपने विरोधियों को
चुनचुनकर बाहर कर का रास्ता दिखाया या उन्हें चित कर दिया। भीतरी लड़ाई जीतने के
बाद इंदिरा ने पहले 1967 के लोकसभा चुनाव में 282 सीटें जीतीं और फिर 1971 में 352
सीटें जीतकर विपक्ष और पार्टी के भीतर अपने बचे खुचे विरोधियों का एक तरह से दमन
कर दिया
उस दौर में सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों में इंदिरा की स्पेलिंग के बाकी लेटर तो कैपिटल लिखे जाते थे लेकिन ‘R’ स्मॉल कर दिया जाता था। ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि पढ़ने वाले इंदिरा की जगह इंडिया पढ़ें और धीरे धीरे इंदिरा को इंडिया पढ़ने की आदत पड़ जाए। ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ के दौर में एक दलीय प्रभुत्व से दो चार हो चुके भारतीय लोकतंत्र के लिए आज का मोदी युग कोई चौंकाने वाली घटना नहीं है। जिस तरह बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पाकिस्तान के दो टुकड़े कर इंदिरा गांधी ने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर एक ताकतवर नेता की बनायी थी। लगभग उसी ढ़र्रे पर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का सफर ‘मोदी जी आने वाले हैं’ से शुरू होकर ‘मोदी है ना’ तक पर पहुंच गया है। पहले नोटबंदी फिर सर्जिकल स्ट्राइक और जीएसटी जैसे कड़े फैसले लेने के बावजूद मोदी के लिए जनता की दीवानगी बनी रही।
नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों के बाद भी विपक्ष के नेता महागठबंधन का ऐलान होने के बावजूद जनता का भरोसा हासिल करते हुए
भारत बंद तक सफलतापूर्वक नहीं करा सके। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की अगुवाई राहुल गांधी कर रहे हैं जो राजनैतिक रूप से 40 साल की उम्र पार करने के बाद भी अभी अपरिपक्व माने जाते हैं। सपा के अखिलेश यादव पिता की बनायी रियासत को बढ़ाने में सफल होते नहीं दिख रहे हैं। उनके पास जनता के बीच जाकर बड़े आंदोलनों का भी कोई अनुभव नहीं है। टिकट बेचने और भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों से जूझ रहीं बसपा सुप्रीमो मायावती ने पहले अपने भाई आनंद को अपना उत्तराधिकारी बनाया है, जबकि आनंद के खिलाफ कई गंभीर मामलों में जांच चल रही है। हालांकि बाद में उन्होंने यह फैसला पलट दिया लेकिन पर्दे के पीछे आनंद की अहमियत पार्टी में सबको पता है। बिहार में खुद को मोदी का सबसे बड़ा विरोधी बताने वाले राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव और उनके कुनबे पर भी भ्रष्टाचार के इतने गंभीर आरोप हैं कि साफ सुथरी छवि वाले नितीश कुमार के लिए उनके साथ मिलकर सरकार चलाना दूभर हो गया। नतीजा हुआ कि मोदी का विरोध करने के बावजूद उन्हें साफ सुथरे तरीके से सरकार चलाने के लिए राष्ट्रीय जनता दल का साथ छोड़ बीजेपी से हाथ मिलाना पड़ गया। राजस्थान और मध्य प्रदेश समेत आगामी आठ राज्यों के चुनाव में में भी बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों के पास कोई चमत्कारिक चेहरा नहीं दिखता। बशर्ते बीजेपी हिट विकेट होकर ही मैदान के बाहर ना चली जाए।
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