सोमवार, 3 सितंबर 2018

लिटमस टेस्ट पार्ट टू : देखते हैं कि सवर्णों को नाराज कर जीत पाते हैं कि नहीं


तीन साल पहले जातीय समीकरण और आरक्षण का जो लिटमस टेस्ट बिहार विधानसभा के ऐन पहले किया गया था, ठीक वही प्रयोग इस बार राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में फिर किया जा रहा है। पहले टेस्ट में आरएसएस और उसके राजैनेतिक अनुषांगिक संगठन बीजेपी को सबक मिला था कि आरक्षित तबके को नाराज कर चुनाव नहीं जीता जा सकता। लिहाजा इस बार बीजेपी नीत सरकार ने सवर्णों के पक्ष में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में ले जाकर पलट दिया। ऐसा करके यह देखने की कोशिश की जा रही है कि सवर्णों को नाराज कर चुनाव में जाने जाने का असर क्या और कितनी दूर तक हो सकता है। हालिया टेस्ट भी हिंदीभाषी राज्यों के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले किया जा रहा है क्योंकि जाति आधारित फैसलों के सबसे बेहतर नतीजे चुनाव में ही सामने आते हैं। मुझे पूरा यकीन है कि शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह को मुश्किल चुनाव में धकेलकर बीजेपी कोई ऐसा जातीय चुनावी फॉर्मूला पा जाएगी जिसका इस्तेमाल कर लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की राह आसान की जा सके।
          वर्ष 2015 अक्टूबर में ऐन बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने खुले मंच से बयान दे दिया था कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए। इसका नतीजा हुआ कि बीजेपी के तमाम दावों और वादों को दरकिनार करते हुए आरक्षित तबके ने लामबंद होकर नीतिश और लालू के पक्ष में मतदान कर बीजेपी को सत्ता की दौड़ से बाहर कर दिया। हालांकि आरएसएस का प्लान इतना फूलप्रूफ था कि चुनाव हारने के महज डेढ़ साल के भीतर ही बीजेपी वापस सत्ता में गई। एक बार फिर ऐसे ही फूलप्रूफ प्लान के साथ नया प्रयोग हो रहा है। इस बार संगठन ने हिंदीभाषी राज्यों की अपनी तीन ऐसी सरकारों को दांव पर लगा दिया है जो लोकप्रियता के मामले में कई बार मोदी को टक्कर देते हैं।
           सामान्य राजनैतिक समझ वाला आदमी भी यह बात समझता है कि बीजेपी सवर्णों के झुकाव वाली पार्टी है। इसके बावजूद बीजेपी नीत केंद्र सरकार ने सवर्णों की भावनाओं से अलग जाते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में ले जाकर पलट दिया, जबकि इसे आसानी से विधानसभा चुनावों के बाद तक के लिए टाला जा सकता था। ऐसा ना करते हुए जो फैसला केंद्र सरकार ने किया, इसका नतीजा है कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की जनसभाओं में जूते फेंके जा रहे हैं और यात्राओं में काले झंडे दिखाए जा रहे हैं। राजस्थान में वसुंधना के सामने भी मुश्किल हालात पैदा हो गए हैं। राजस्थान में बीजेपी उपचुनाव में हार चुकी है। वहीं मध्य प्रदेश में भी पिछली तीन विधानसभा लगातार जीत रही बीजेपी के लिए सत्ता विरोधी लहर से निपटना आसान नहीं होगा। इस बीच एक सर्वे के मुताबिक बीजेपी को करीब पचास सीटों का नुकसान हो रहा है, इस बीच सवर्णों की एकमुश्त नाराजगी इस संख्या को बढ़ा सकती है।

मुश्किल हुई राह
 मध्य प्रदेश : बीजेपी ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां उन्तीस में से सत्ताईस सीटें जीती थीं। इस बार सत्ता विरोधी लहर के बीच एससी,एसटी एक्ट को लेकर सवर्णों की  नाराजगी भारी पड़ सकती है।

राजस्थान : पिछले साल राज्य में हुए ज्यादातर उपचुनाव बीजेपी हार चुकी है। उपचुनावों में जीत से उत्साहित कांग्रेस को बीजेपी के इस उल्टे पड़े दांव से भी फायदा हो सकता है।

छत्तीसगढ़  : लोकसभा चुनाव में राज्य की ग्यारह में से दस सीटें बीजेपी ने जीती थीं। हालांकि पंद्रह साल से लगातार बन रही सरकार को लेकर कई जगह नाराजगी भी है। इस बीच सवर्णों की एकजुट नाराजगी झेलना मुश्किल हो सकता है।


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